लाल बहादुर शास्त्री
प्रत्येक महान इंसान का जीवन यह बताता है कि वह किस प्रकार महानता के क्षितिज तक पहुंचा है। इस मामले में लाल शास्त्री का जीवन निश्चय ही पठनीय है, क्योंकि उनकी प्रतिभा को संघर्षों ने ही परवान चढ़ाया था। भारत के इस महान सपूत का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय में हुआ था। शिशु लाल बहादुर अभी डेढ़ वर्ष के भी नहीं थे कि उनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। फिर उनका एवं उनकी दो बड़ी बहनों के पालन-पोषण का भार माता रामदुलारी पर आ गया। लाल बहादुर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने नाना के घर रहकर ग्रहण की। उनकी माध्यमिक स्तर की शिक्षा काशी में मौसाजी के पास रहकर हुई। वहां वे पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ने जाते थे। एक दफा तो पैसों के अभाव में उन्हें तैरकर नदी पार करनी पड़ी।
सन् 1920 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया। उस आंदोलन ने शास्त्रीजी को भी प्रेरणा प्रदान की। उस दौरान उनकी उम्र 16 वर्ष थी। वे घर की चिंता त्याग असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। असहयोग आंदोलन के बंद होने पर उन्होंने काशी विद्यापीठ से सन् 1925 में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की । फिर सन् 1927 में ललिता देवी से उनका विवाह संपन्न हुआ।
जब देश स्वाधीन हुआ तो सन् 1952 में पं. जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में उन्हें रेलमंत्री बनाया गया। फिर सन् 1957 में वे गृहमंत्री बने। 27 मई,1964 को जब नेहरू जी का देहांत हो गया, तो देश के राजनीतिक नेताओं शास्त्री जी को उनका उत्तराधिकारी चुना। 6 जून, 1964 को शास्त्री जी भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।
उस वक्त देश की स्थिति ठीक नहीं थी। 1962 के चीनी हमले ने भारत की साख को बहुत चोट पहुंचाई थी। देश में खाद्यान्न संवाद भी हो गया था। फिर सन् 1965 में पाकिस्तान ने भी भारत पर आक्रमण कर दिया। तब शास्त्री जी ने अपने सामान्य से शरीर में छिपी आंतरिक शक्ति का चमत्कार दिखाया और महज तीन सप्ताह में ही पाकिस्तान फौज को परास्त कर दिया। हमारी सेनाएं आक्रमणकारियों को धकेलती हुई लाहौर तक जा पहुंची। भारत की इस अनुपम जीत से विश्व स्तब्ध रह गया।
फिर जनवरी, 1966 में ताशकंद में शास्त्री जी व सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री कोसीगिन ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए। संधि पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटों पश्चात् हृदय गति थम जाने से उनका स्वर्गवास हो गया।
इस समाचार से संपूर्ण भारत में शोक व्याप्त हो गया। फिर उनका शव भारत लाया गया और 'विजयघाट' पर उनकी समाधि बनाई गई। 'जय 'जवान, जय किसान' का नारा उन्होंने ही दिया था। वे सदैव लोगों को अपने साथ लेकर चलते थे। शास्त्री जी राष्ट्र को सबसे ऊंचा मानते थे। 'शांति के पुजारी' और युद्ध के विजेता' के रूप में उनका नाम भारतीय इतिहास में सदैव दर्ज किया जाता रहेगा। सामान्य कद-काठी के शास्त्री जी ने बताया कि दृढ़ इच्छाशक्ति द्वारा बड़ी-बड़ी खामियों के बाद भी असाधारण सफलताएं प्राप्त की जा सकती हैं।
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