रानी लक्ष्मीबाई
भारत की वीरांगनाओं में रानी लक्ष्मीबाई प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की महान सेनापति थीं। इनका बाल्यकालीन नाम मनुबाई था। इनका जन्म 19 नवंबर, 1835 को वाराणसी में हुआ था। झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ शादी के पश्चात् उनका नाम लक्ष्मीबाई पड़ा। लक्ष्मीबाई के पिता ब्राह्मण थे। उनकी मां शौर्यवान व धार्मिक थीं। रानी की मां उन्हें महज 4 वर्ष की उम्र में ही छोड़कर देवलोक चली गई थीं।
रानी लक्ष्मीबाई ने बचपन में ही घुड़सवारी, तलवार और बंदूक चलाना सीख लिया था। विवाह के बाद सन् 1851 में रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, किंतु दुर्भाग्यवश वह काल कलवित हो गया। उस समय उसकी उम्र मात्र 4 माह की थी। फिर रानी ने एक पुत्र को गोद लिया। उन्होंने उस दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा। किंतु अंग्रेजों को यह ठीक नहीं लगा कि रानी लक्ष्मीबाई का दत्तक पुत्र दामोदर राव उनके सिंहासन का कानूनी वारिस बने। क्योंकि झांसी पर अंग्रेज स्वयं शासन करना चाहते थे। अतः अंग्रेजों ने कहा कि झांसी पर से रानी लक्ष्मीबाई का अधिकार खत्म हो जाएगा, क्योंकि उनके पति महाराजा गंगाधर का कोई वारिस नहीं है। फिर अंग्रेजों ने झांसी को अपने राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। इसी बात पर अंग्रेजों और रानी के मध्य युद्ध छिड़ गया।
रानी लक्ष्मीबाई झांसी छोड़ने को तैयार नहीं थीं। वह देशभक्ति और स्वाभिमान की प्रतीक थीं। इसी मध्य सन् 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हो गया। रानी लक्ष्मीबाई युद्ध-विद्या में निपुण थीं। वह पूरे शहर को स्वयं देख रही थीं। रानी ने पुरुषों की वेशभूषा पहनी हुई थी। बच्चा उनकी पीठ पर बंधा हुआ था। रानी ने घोड़े की लगाम मुंह से थामी हुई थी और उनके दोनों हाथों में तलवारें थीं। उन्होंने अंग्रेजों के समक्ष कभी आत्म-समर्पण नहीं किया और अंग्रेजों को भरपूर टक्कर दी।
दूसरे राजाओं ने उनका साथ नहीं दिया। इस कारण वे हार गईं और अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया। इसके बाद काल्पी जाकर उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा। नाना साहब और तांत्या टोपे के साथ मिलकर रानी ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए।
महारानी लक्ष्मीबाई घुड़सवार की पोशाक में लड़ते-लड़ते 17 जून, 1858
को शहीद हो गईं। यदि जिवाजी राव सिंधिया ने रानी लक्ष्मीबाई से कपट न किया होता तो भारत 100 वर्ष पूर्व 1857 में ही अंग्रेजों के आधिपत्य से मुक्त हो गया होता। प्रत्येक भारतीय को उनकी वीरता सदैव याद रहेगी। कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने उनकी वीरता के विषय में बहुत बढ़िया लिखा है:
'बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।'
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